श्री गुरु माता जी

'मातृदेवो भव' इस वैदिक अवधारणाओं के आलोक में श्री सिद्धदाता आश्रम में पूज्‍या माताजी का दर्शन आश्रमवासियों एवं भक्‍तों के लिए सुलभ हो रहा है। पूज्‍य वैकुण्ठवासी महाराज की सहधर्मिणी एवं पग-पग पर उनके लौकिक एवं परमार्थ के पथ में सहयोग देने वाली पूज्या माताजी वर्तमान महाराज श्री पुरूषोत्‍तमाचार्य जी की जननी के साथ उनके पथ प्रदर्शक आर्शीवाद प्रदात्री एवं प्रेरणा के श्रोत के रूप में अजस्र कल्‍याणधारा प्रवाहित कर रही हैं। 'माता गुरूतरा भूमि' के अनुसार माता पृथ्‍वी से भी गुरूतर स्‍थान रखती हैं। 'कुपुत्रो जायेत् क्‍वचिदपि कुमाता न भवति' के अनुसार पुत्र कुपुत्र हो सकता है परंतु माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती। वह अपने पुत्रों और शिष्‍यों पर निरंतर करूणामयी ममतामयी होकर कल्‍याण परम्‍परा स्‍थापित करती हैं। भगवान् को भी भक्‍तों की रक्षा तथा उनके कार्यों को सम्‍पादन करने के लिए माता लक्ष्‍मी की सहायता लेनी पड़ती है। इसलिए भक्‍तों ने नारायण से पूर्व में लक्ष्‍मी का नाम ग्रहण कर लक्ष्‍मीनारायण के कृपापात्र बनने का सौभाग्‍य प्राप्‍त करते हैं। काशीवासियों एवं भक्‍तों के भरण के लिए काशी के अधिपति भगवान् शंकर माता पार्वती से भिक्षा मांगने में भी संकोच नहीं करते हैं। 'भिक्षां देहि कृपावलम्‍वम करी मातान्‍नपूर्णेश्‍वरी''। इस प्रकार सृष्‍टि के आदि से ही पिता से भी गरिमामय स्‍थान माता का माना गया है। अत: श्री सिद्धदाता आश्रम के निर्माण के भी प्रेरणास्रोत एवं वर्तमाना पूज्‍य महाराज श्री पुरूषोत्‍माचार्य जी की जननी पूज्‍या माताजी आश्रमवासियों एवं उनके भक्‍तों पर ममत्‍व तथा कृपा अहर्निश बरसाती रहती हैं। इसलिए बाल्‍मीकि रामायण का यह वाक्‍य – 'जननी जन्‍मभूमिश्‍चय स्‍वर्गादपि गरीयसी' के अनुसार जननी और जन्‍मभूमि स्‍वर्ग से भी बढ़कर हैं यह उक्‍ति सर्वथा सत्‍य है।

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