प्रक्रिया

यह सर्वविदित विषय है कि कोई भी वस्तु या प्राणी बिना संस्कार के किसी भी कर्म के योग्य नहीं होता। जिस प्रकार एक सुर्वण को धारणयोग्य बनाने के लिए उसको संस्कारित करके उससे आभूषण बनाये जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य के लिए भी किसी भी कर्म में प्रवृत्ति के लिए संस्कार आवश्यक हैं और इसके लिए हमारे धर्मशास्त्रों ने सोलह संस्कार निर्णीत किए हैं। इससे अतिरिक्त जब श्रीविशिष्टाद्वैतसम्प्रदाय की बात करते हैं तो यहाँ सोलह संस्कार के अतिरिक्त पाँच अन्य संस्कार निर्धारित किए गए हैं। यह मनुष्यदेह प्राप्त करने के पश्चात् हमारे लिए चार पुरूषार्थ प्राप्य होते हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा भगवत्प्राप्तिरूपी मोक्ष के लिए चार मार्ग निर्धारित किए गए हैं – कर्म, ज्ञान, भक्ति और प्रपत्ति अर्थात् शरणागति। इनमें से चतुर्थ शरणागतिमार्ग का अवलम्बन श्रीविशष्टाद्वैतसम्प्रदाय में किया जाता है, अत: सदाचार्यों के द्वारा भगवत्-शरणार्थी भक्त को पाचँ सस्कारों द्वारा संस्कारित किया जाता है, जिसके बाद वह भक्त शरणागति का अधिकारी होता है। उक्त पाँच संस्कार निम्नलिखित हैं.

१. ताप (शङ्खचक्र-धारण)-संस्कार, २. पुण्ड्रसंस्कार, ३. नामसंस्कार, ४. मन्त्रसंस्कार और ५. याग-संस्कार।

ताप: पुण्ड्रस्तथा नाम मन्त्रो यागश्च पञ्चम:। अमी पञ्चैते संस्कारा: परमप्राप्तिहेतव:।।

भगवत्-शरणागति का तात्पर्य होता है कि कायेन वाचा मनसा पूर्णत: स्वयं को अकिञ्चन और अनन्यगति मानते हुए भगवान् के चरणारविन्दों में समर्पित कर देना और जब हम किसी के शरणागत होते हैं तो उन्हीं के चिह्न, उन्हीं का तिलक, उन्हीं का नाम और उन्हीं के मन्त्र ही हम धारण करते हैं क्योंकि हम केवल व केवल उन शरणागतवत्सल प्रभु के ही हैं। हमारे उपाय भी वही हैं और हमारे उपेय भी। इसी दिष्ट से ऊपर बताये गए संस्कार क्रमश: किए जाते हैं, जिनमें सर्वप्रथम है-

१. तापसंस्कार: इस संस्कार में आचार्य प्रभु की शरणागति के इच्छुक शिष्य को भगवान् के आयुध शंख एवं चक्र के प्रतिबिम्ब रूप में निर्मित शंख, चक्र को तप्त कर शिष्य की दोनों भुजाओं में चिह्नित करते हैं। इस प्रकार इस संस्कार द्वारा प्रभु के चिह्न हमें प्राप्त होते हैं।

२. पुण्ड्रसंस्कार- इस संस्कार में श्रीचूर्ण के साथ भगवान् के चरणचिह्न के प्रतीक के रूप में माथे पर आचार्य द्वारा ऊध्र्वपुण्ड्राकार में तिलक धारण किया जाता है और यह तिलक केवल श्वेतमृत्तिका के द्वारा ही लगाया जाता है, इसके साथ मध्य में हरिद्रनिर्मित चूर्ण (जिसे कि लक्ष्मीस्वरूप होने के कारण श्रीचूर्ण कहा जाता है) धारण किया जाता है।

३ नामसंस्कार: जिस प्रकार किसी नवजात शिशु को अस्तित्व देने के लिए उसका पिता कोई एस नाम उसे देता है, उसी प्रकार इस शरणागतिमार्ग में प्रविष्ट होकर जब हम भगवान् से 'प्रभो! हम केवल और केवल आपके ही हैं' ऐसा निवेदन करते हैं तो हमें भी अपने अस्तित्व के लिए अपने प्रभु का नाम मिल जाता है। अत: इस संस्कार में आचार्य द्वारा हमें भगवान् का नाम दिया जाता है गोविन्द, माधव, कृष्ण इत्यादि और इनके साथ ' रामानुजदास ' यह भी जोड़ा जाता है क्योंकि इस पञ्चसंस्कार के बाद हमारा सम्बन्ध श्रीरामानुजाचार्य स्वामी जी से हो जाता है जो कि इस सम्प्रदाय के प्रवर्धक है, और कहा भी गया है-

रामानुजसम्बन्धान्मुक्ति:। चूँकि श्रीवैष्णवसम्प्रदाय में नैच्यानुसन्धान (स्वयं को सबसे छोटा मानकर कार्य करने) की परम्परा रहती है, अत: ' दास ' शब्द का प्रयोग किया जाता है। श्रीयामुनाचार्य जी , श्री कुलशेखर स्वामी जी आदि हमारे आलवारों ने भी अपने स्तोत्रों में बहुत नैच्यानुसन्धान के भाव दर्शाये हैं, जैसा कि कुलशेखर स्वामी जी अपने मुकुन्दमालास्तोत्र में भगवान् से निवेदन करते हे-

मज्जन्मन: फलमिदं मधुकैटभारे मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह एष एव।

त्वद्भृत्यपरिचारकभृत्यभृत्य-भृत्यस्य इति मां स्मर लोकनाथ।। इसका भाव यही है कि- हे प्रभो! आप मुझ पर बस इतना अनुग्रह कीजिए कि आप अपने दास के दास के दास के दास के भी चरमदास के रूप में इस दास को स्वीकार कर लीजिए। इस प्रकार प्रभु का दासत्व प्राप्त करने के पश्चात् क्रम आता है चतुर्थ संस्कार का और वह है-

४. मन्त्रसंस्कार: इस संस्कार में हमारे आचार्य हमें प्रभुनाम के मन्त्र प्रदान करते हैं- श्रीमन्त्र (मूलमन्त्र), द्वयमन्त्र और चरममन्त्र। ये तीनों ही मन्त्र शरणागतिपरक हैं। यह मन्त्र प्रदान करने का तात्पर्य यही है कि हम इनका जप करते हुए निरन्तर प्रभुशरण की ही कामना करें।

५. यागसंस्कार: यागसंस्कार में आचार्य भगवान् से प्रार्थना करते है कि प्रभो! यह जीव अनादि काल से संसारचक्र पीसता रहा, अब यह आपकी शरण में आ गया है, अत: इसका उद्धार करें- नारायण दयासिन्धो वात्सल्गुणसागर। एनं रक्ष जगन्नाथ बहुजन्मापराधिनम्।। पूर्वोक्त चार संस्कार कर लेने के पश्चात् शरणागत भक्त पूर्णत: भगवान् का हो जाता है, उसके पश्चात् आचार्य उसे भगवत्समाराधनरूपी याग की दीक्षा लेते हैं और इस प्रकार पञ्च संस्कार पूर्ण हो जाते हैं।

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