महत्व

ये संस्कार भगवान् की अन्तरंग सेवा में मनुष्य के अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण तथा पाञ्चरात्रागमपद्धति से पूर्ण समर्थित है। जिस प्रकार अन्य सोलह संस्कार किसी भी कर्म के लिए हमें अधिकारी बनाते हैं, उसी प्रकार ये पञ्च संस्कार भी हमें भगवदाराधना में योग्यता प्रदान करते हैं। ये पञ्चसंस्कार भगवदाराधनाविरोधी पापों का नाश करके हमें पूर्णत: शुद्ध करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते है। ताप के द्वारा हमारे शरीर की शुद्धि और समस्त संचित कर्मों नाश होता है। तिलक से हमारे बुद्धि- मस्तिष्क की शुद्धि होती है, मन्त्र से हमारे अन्त:करण, आत्मा की शुद्धि तथा भगवन्नाम से हमें भागवत होने का अधिकार प्राप्त होने के पश्चात् हम यागरूपी भगवत्समाराधना के अधिकारी बन जाते हैं। ये पञ्चसंस्कार हमारी प्रपन्नता के परिचायक हैं और प्रतिफल हमें शरणागतिमार्ग से भटकने से बचाये रहते हैं क्योंकि यह भी विशेष ज्ञातव्य है कि यदि शरणागतिमार्ग में एक बार भी शरणागति का भाव हटा दो शरणागति भंग हो जाती है, अत: आचार्य द्वारा प्राप्त इन चिह्नों को हमेशा धारण करना चाहिए, जिससे कि हमारी शरणागति भंग न हो।

इस प्रकार प्रपत्ति स्वरूप का प्रकाशक है। जिसका चिन्ह धारण करता है, उसी का वस्तु वह माना जाता । जिस प्रकार सेना, पुलिस को राजचिन्ह, राजपोशाक धारण करने के पश्चात् राजकार्य करने का अधिकार प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह संस्कार भी भगवद्धर्म अनुष्ठान करने के लिए अनिवार्य रूप से धारण करने के लिए शास्त्र आज्ञा प्रदान करते हैं।

लोक में भी पतिव्रता स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्म के लिए चूड़ी, मंगलसूत्र, सिंदूररेखा आदि धारण करना आवश्यक होता है तो मन का भाव भी पति के लिए अव्यभिचारी, अनुकूल तथा शुद्ध होना चाहिए। उसी प्रकार परमेश्वर के विषय में बाह्मचिन्ह शंख चक्रादि धारण हैं। आन्तरिक चिन्ह विषय में वैराग्य के साथ भगवत्प्रेम है।

अन्तरंग संस्कारों में स्वीकृत पञ्च संस्कार ही श्रेष्ठ हैं। वैष्णवत्वसिद्धि में सर्वप्रथम कारण शंख-चक्र धारण, द्वितीय श्रीचूर्ण के साथ भगवान के चरण चिह्न ऊध्र्वपुण्ड्र का धारण, तृतीय भगवत्सम्बन्धी दासान्त नाम, चतुर्थ भगवत्स्वरूप एवं गुणों के प्रकाशक व्यापक मन्त्र का ग्रहण, पाँचवां है भगवत्समाराधन रूप याग संस्कार। ये संस्कार भगवान के अन्तरंग सेवा में मनुष्य का अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। यह शास्त्र की आज्ञा हैं।

श्रीरामानुज सम्प्रदाय के श्रीवैष्णवों में पञ्चसंस्कार का महत्व सर्वविदित है क्योंकि सभी भक्त पञ्चसंस्कार संस्कृत रहते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र इतिहास, पुराण, तथा पाञ्चरात्रागम से पूर्ण समर्थित है।

सामान्य संस्कार के समान विशेष पञ्चसंस्कार भी संस्कार होने के कारण अन्य कार्य में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के विरोधी पापों को नाश करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते हैं। साथ ही देह और आत्मा के भी संस्कार होने से शरीर और आत्मा दोनों को पवित्र करते हैं। शरीर से वैदिक विधि से भगवान के शंख और चक्र आदि का धारण करने से यमराज का भी भय नहीं रहता। क्योंकि यमराज श्रीवैष्णवों के शासक नहीं हैं।

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