श्री रामानुजाचार्य
विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के प्रवर्तक समर्थक भगवान् भाष्यकार स्वामी रामानुजाचार्य लगभग एक हजार वर्ष पूर्व 1017 ई0 वर्ष तमिलनाडू के धराधाम पर अवतीर्ण हुए। इनकी माता का नाम कान्तिमती एवं पिता श्री केशवाचार्य के नाम से जगतप्रसिद्ध हुए। रामानुजाचार्य के दीक्षा गुरु श्री महापूर्ण स्वामी जी थे और नाथमुनि एवं यामुनाचार्य का भी गुरु माना करते थे। बाल्यावस्था से ही प्रतिभा के धनी विलक्षणगुणगण समुदाय सुशोभित थे। इनका विवाह युवावस्था के प्रारम्भ में ही हो गया था। पिता के देहावसान के बाद सपरिवार कांचीपुरम में निवास करने लगे।
रामानुजाचार्य पृथ्वी धारणक्षम भगवान् शेष के अवतार माने जाते है। जैसाकि प्रतिपादित किया गया है-
प्रथमोऽनन्तरूपश्च द्वितीयो लक्ष्मणस्तथा ।
तृतीयो बलरामश्च कलौ रामानुजो मुनि: ।।
भगवान् लक्ष्मीनारायण के नित्य शय्या एवं कैकेर्य लक्षण विलक्षण भगवान् शेष प्रथमरूप माना जाता है। द्वितीय त्रैतायुग में मर्यादापुरूषोत्तम राम के छोटे भाई लक्ष्मण के रूप में उनेक सतत् सेवा परायण बने। द्वापर के अन्त में लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण के बड़े भाई बल के निधान बलराम के रूप में निरन्तर श्रीकृष्ण के सेवा परायण रहे, कलियुग में रामानुजाचार्य के रूप में विराजमान हुए हैं। पाँचवा अवतार व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि के रूप में जाना जाता है।
इन सब अवतारों में रामानुजाचार्य का अवतार कैंकेर्य लक्षण विलक्षण मोक्ष भाज: तथा जीव को शरणागति के मार्ग के पथिक बनाकर मुक्तिमार्ग का अवलम्बन कराना माना जाता है। इसलिए कहा गया है कि –
"रामानुज सम्बन्धान्मुक्तिमार्ग:"
रामानुज श्रुतसम्मत सम्प्रदाय के आचार्य हैं। इनका सम्बन्ध परतत्व श्रीलक्ष्मीनारायण से है। इनका परम लक्ष्य संसार सागर में निमग्न जीव को भक्तिमार्ग का अवलम्बन कराकर मुक्ति कराना है। अत: -
लक्ष्मीनाथ समारम्भां नाथयामुनमध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरु परम्पराम्।।
रामानुज छोटी अवस्था में ही प्ररवर प्रतिभा के कारण अमूर्त दार्शनिक तत्त्व समझने, अपनी नवीन व्याख्या और भाष्य प्रस्तुत करने की क्षमता रखते थे। अत: अपने गुरु यादव प्रकाश जी से भी श्रुति की व्याख्या पर असहमति प्रकट की। असहमति का प्रकार निम्न है। यादव प्रकाश ने "कप्यास:" इस श्रुति का अर्थ भगवान् के नेत्र बन्दर के नितम्ब भाग के समान लाल हैं, ऐसा किया। परन्तु रामानुजाचार्य ने अपनी विलक्ष्ण प्रतिभा और शास्त्रीय मेघा से "जलं पिवति इति कपि: सूर्य:, तेन आस्यते क्षिप्यते इति कप्यासम् कमलम्" ऐसा लौकिक विग्रह करते हुए "कप्यास:" इस श्रुति का अर्थ गहरे जल में उत्पन्न और उगते हुए सूर्य की किरणों से नवविकसित कमल दल के समान भगवान् नारायण के युगल नेत्र है ऐसा शास्त्र सम्मत और लोक सम्मत सुन्दर अर्थ प्रस्तुत किया। जिससे उनके गुरु के हृदय में द्वेष उत्पन्न हुआ। उन्होंने षड़यन्त्र कर रामानुजाचार्य को मारने की योजना बनाई। लेकिन व्याध दम्पत्ति के रूप में भगवान् वरदराज ने उनकी रक्षा की। यादव प्रकाशजी के हृदय में रामानुजाचार्य जी के प्रति द्वेष भाव राजकन्या के ऊपर ब्रह्म राक्षस के प्रभाव से भी पड़ा। राजकुमारी के ऊपर ब्रह्म राक्षस का आंतक था जिसे हटाने में सभी मान्त्रिक और सिद्ध असमर्थ हुए। इसके लिए यादव प्रकाश जी को बुलाया गया। अपने शिष्य रामानुज के साथ वहाँ पहुँचे और मंत्र तंत्र का प्रयोग किया, लेकिन राजकुमारी के ऊपर व्याप्त ब्रह्मराक्षस ने कहा कि तुम्हारे मंत्रों से मैं जाने वाला नहीं हुँ लेकिन तुम्हारा शिष्य रामानुज अपना चरणोदक दे दें तो मैं चला जाऊँगा, वैसा ही हुआ। बह्म राक्षस चला गया। यादव प्रकाश के हृदय में और अधिक कुण्ठा हुई। यादव प्रकाश रामानुजाचार्य की विश्लेषणात्मक प्रतिभा से प्रभावित थे। किन्तु भक्ति के विचार से सहमत नहीं थे। भक्ति की व्याख्या पर निरन्तर संधर्ष के बाद यादव प्रकाश जी ने रामानुजातचार्य को अपने यहाँ आने से मना कर दिया। इसके बाद रामानुजाचार्य के बचपन के संरक्षक कांचीपूर्ण जी ने उन्हें अपने गुरु यामुनाचार्य से मिलने का सुझाव दिया। उनके यामुनाचार्य से मिलने के लिए श्रीरंगम् की यात्रा पर सपिरवार चल पड़े। परन्तु वहाँ पहुँचने से पूर्व ही यामुनाचार्य का देहावसान हो गया। वहाँ पहुँचने पर रामानुजाचार्य देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई है। इससे वे समझ गये कि यामुनाचार्य तीन कार्यो के प्रति चिन्तित थे। रामानुजाचार्य ने तीनों कार्यो को पूर्ण करने का प्रण लिया। इससे उनकी तीनों अंगुलियाँ सीधी हो गई।
श्रीरामानुजाचार्य ने यामुनाचार्य को अपना मानसिक गुरु स्वीकार करते हुए उनके शिष्य महापूर्ण जी से छ: महिने तक यामुनाचार्य के दार्शनिक विचारों के बारे में जानकारी प्राप्त की। एक वर्ष तक सम्प्रदाय में शामिल नहीं हुए। इसके पश्चात् रामानुजाचार्य जी ने पद यात्रा प्रारम्भ की। इस अवसर पर विष्णु मन्दिरों के संरक्षकों के साथ दार्शनिक शास्त्रार्थ किया। उसमें हारने के बाद वे सब रामानुजाचार्य के शिष्य हो गये। उन्होनें कई मन्दिरों का नवनिर्माण कराया। वैष्णव सम्प्रदाय की श्री वृद्धि हुई। इसी समय में उन्होंने सात ग्रन्थों की रचना की।
- श्रीभाष्यम् - भगवान् वारदायण व्यास प्रणीत ब्रह्म सूत्रों पर सर्व प्रामणिक व्याख्या ग्रन्थ है। यहाँ सभी मतों को खण्डन करते हुए विशिष्टाद्वैत की स्थापना की।
- गीता भाष्यम् - इसमें भगवद् गीता की व्याख्या की गई है। जिसमें श्रीकृष्ण की हृलादिकी व्याख्या है।
- वेदार्थ संग्रह: - इसमें श्रुति सम्मत द्वैत, अद्वैत मतों का खण्डन करते हुए उपनिषदों की वास्तविक अर्थ प्रतिपादित किया गया है।
- वेदान्त द्वीप - यह श्रीभाष्य का लघुरूप है। अत्यन्त सरल है।
- वेदान्तसार - श्रीभाष्य का लघुतम रूप है। विशिष्टाद्वैत के लिए प्रारम्भिक ग्रन्थ है।
- गद्यत्रय - इसमें शरणागतिगद्य वैकुण्ठ ग्रन्थ और श्रीरंगगद्य का समावेश है।
- आराधना ग्रन्थ – इसमें भगवत् आराधना के विषय में प्रतिपादन है।
इनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीभाष्य है। सरस्वती देवी ने कश्मीर के शारदापीठ में इनके द्वारा "कप्यासं पुण्डरीकाक्षम्" की व्याख्या सुरकर भाष्यकार की उपाधि से सम्मानित किया था। तभी से इन्हें भाष्यकार रामानुजाचार्य के रूप में जाना जाता है।
विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन श्रीलक्ष्मीनारायण को विशिष्टा देवता तथा लोकप्रिय वैष्णवसिद्धाना के प्रतिपादन के कारण रामानुजाचार्य की विशेषता है। अद्वैतमत इसके लिए वाद विवाद के स्वाभाविक वातावरण प्रस्तुत करता है। शास्त्रीय विचारों का प्रतिपादन लोकप्रिय तमिल कविता रामानुज प्रणाली का श्रोत है। इसमें उभय वेदान्त का यहाँ संगम है।
श्रीरंगम के रंगनाथ मन्दिर में यामुनाचार्य के चरणों में भावनात्मक समर्पण के बाद वहाँ पर मोम निर्मित समाधिस्थ पद्मासन में विराजमान प्रतिकृति स्थापित है। वैष्णव मन्दिरों में प्रमुख्य धार्मिक सेवाओं से पूर्व इनका आर्शीवाद प्राप्त करना श्रेयस्कर माना जाता है।
करीब एक सौ बीस वर्ष की आयु पूर्ण करने के बाद वैष्णव धर्म विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रचार प्रसार के बाद अपनी विभूतियों को समेटते हुए वैकुण्ठ धाम की यात्रा की। अपने ही भक्तों से अपने अपराध क्षमा करने की याचना की। कपालभेदन करते हुए माघ शुक्ल दशमी मंगलवार 1137 ई0 में वैकुण्ठ पधार गये।