श्री सम्प्रदाय
श्रीसम्प्रदाय हिन्दू धर्म के अन्दर वैष्णव के चार सम्प्रदायों में से एक है। यह शास्त्रीय मत हैं कि इसकी उत्पत्ति लक्ष्मीनाथ एवं श्रीमहालक्ष्मी जी की ईच्छा से हुई है। श्री विष्णु जी श्री निवास है। इससे ज्ञात होता है कि महालक्ष्मी और श्री विष्णु एक ही है। इस सम्प्रदाय में श्री शब्द का प्रयोग किया गया है। यह शब्द श्रीदेवी और महालक्ष्मी के लिए आता है। श्रीदेवी भगवान् विष्णु और मनुष्य के बीच मध्यस्थ है। विष्णुप्रिया महालक्ष्मी भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु चारों को जोड़ती है। जीव को शरणागति कराकर तीनों दु:खों से मुक्ति कर देती है।
इस परम्परा में नारायण श्री विष्णु ही परतत्व है। दुष्टदलन, सन्नरक्षरण और धर्म संस्थापन के लिए अनेक अवतारों को धारणकर विश्व का पालन करते हैं। इस दिव्य परम्परा में दिव्य सोच एवं विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व है। श्री सम्प्रदाय विशिष्टाद्वैत की दार्शनिक व्यवस्था में विश्वास करती है। स्वामी रामानुजाचार्य श्रीमन्नारायण से लेकर संसार के मानवों के बीच तक माला के सुमेर स्थान में वर्तमान है। श्रीमन्नारायण ही सर्वोच्च परमेश्वर और सर्वशक्तिमान् भगवान् है। श्री सम्प्रदाय भाष्यकार भगवान् रामानुज के नाम से जाना जाता है। अन्य लोग इसे रामानुजीय मत के नाम से पुकारते है। अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत इत्यादि मतों का विवाद विशिष्टाद्वैत मत या रामानुजीय मत में आकर शान्त हो जाता है। वास्तव में इन विवादों का समाधान विशिष्टाद्वैतमत में पूर्णत: हो जाता है। यह एक प्रामाणिक श्रृंखला है। जैसाकि कहा गया है कि –
वयन्तु श्रृंखला लग्नारामानुजदयानिधे।
भगवान् लक्ष्मीनाथ से प्रारम्भ हुई परम्परा रामानुज से सम्बन्ध प्राप्त करते हुए भगवत् सम्बन्ध से बंधे हुए है। अतएव –
लक्ष्मीनाथसमारम्भां नाथयामुनमध्यमाम्।
अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम् ।।
श्री सम्प्रदाय पूर्णतया वैदिक है। क्योंकि इनकी परम्परा एवं सिद्धान्त श्रीलक्ष्मीनाथ से प्रारम्भ होकर श्रीलक्ष्मीजी, श्रीविष्वक्सेनसूरि, श्री शठकोपसूरि, श्रीनाथमुनिस्वामीजी, श्रीयामुनाचार्यस्वामीजी, श्रीरामानुजाचार्यस्वामीजी श्रीवरमुनिस्वामीजी इत्यादि की अटूट परम्परा श्रृंखलाबद्ध होकर हमारे श्रीगुरु महाराज तक पहुँची है। वही अविच्छिन्न होकर श्रीगुरु महाराज की कृपा से हम में समाहित हुई है। क्योंकि –
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतो सनातन:। गीता
एवं
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
श्री गीता के उपर्युक्त मंत्रों में यह सिद्धान्त पूर्णतया प्रतिपादित है।