धर्मशाला
स्वामी सुदर्शनाचार्य धर्मशाला सौरों (सूकर क्षेत्र या वाराह क्षेत्र) में स्वामी सुदर्शनाचार्य धर्मशाला का भव्य निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया है। इस क्षेत्र के विषय में वाराह पुराण के एक सौ वाइसवे अध्याय में माहात्य का विस्तृत वर्णन मिलता है। इतिहासकारों के मतानुसार वाराह क्षेत्र (कोकामुखतीर्थ) वर्तमान सौरों को ही माना जाता है। इस तीर्थ में आदिवाराह का प्रादुर्भाव हुआ था। जिसने हिरण्याक्ष का वध करके धरणी का उद्धार किया। धार्मिक दृष्टि से इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण स्थान रहने के कारण राजस्थान और समीपस्थ क्षेत्र के लोग अपने पितरों के लिए पिण्डदान एवं अस्थि विसर्जन करते है। इसलिए यहाँ पर वैकुण्ठवासी स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज का भी अस्थि विसर्जन किया गया। जिसकी स्मृति में "अतिथि देवो भव" इस वैदिक अवधारणों के परिणामस्वरूप भव्य धर्मशाला का निर्माण एवं स्वामीजी की मूर्ति प्राणप्रतिष्ठा महोत्सव उनके पुत्र एवं शिष्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य के द्वारा दिनांक 12-11-2010 को कराया गया। सौरों नगर के बीच नगरपालिका के सामने यह भव्य धर्मशाला अपनी यशोगाथा स्वयमेव प्रदर्शित कर रही है। सौरों आदिवाराह के प्रादुर्भाव क्षेत्र के साथ अनेक धार्मिक सम्प्रदायों एवं संत महन्थों का भी कर्मस्थली रही है। संत तुलसीदास के गुरु नरहरिदास जी ने यहाँ रहकर तुलसीदास को रामचरितमानस का अध्ययन कराया था। परन्तु प्रारम्भिक अवस्था होने के कारण उस समय उस कथा को नहीं समझ सके। जौसाकि रामचरिमानस में स्वयं लिखा है-
मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सों सूकरखेत।
समुझीम नहिं तसि बालपन, तब लगि रहऊँ अचेता।।
यहाँ से पुण्यसलिला भागीरथी का प्रवाह भी इसकी महत्ता को स्थापित करता है। उत्तर भारत के सभी प्रमुख तीर्थ एवं नगर हिमालय से लेकर गंगासागर तक इसी के किनारे स्थित है। सौरों भी इसका अपवाद नहीं है। भावुकभक्त अपने पितरों को पिण्डदान देकर पुण्यसलिला गंगा में स्नानकर धार्मिकलाभ प्राप्त करते है। इस प्रकार धार्मिक क्षेत्र सौरों का महत्व पुराणों के साथ सामाजिक क्रियाकलापों में एवं धार्मिक अवदानों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वाराहपुराण में इसके समीप अनेक तीर्थो एवं मठ मंदिरों का वर्णन तथा स्वरूप यहाँ मिलता है। इसके विषय में संक्षिप्त नाम एवं वर्णन का विवरण जनकल्याण की कामना से प्रस्तुत किया जा रहा है।