Importance of Seva
शरणा गत भाव से किये गये सेवा और स्मरण परमात्मा प्राप्ति के सर्वोपरि साधन हैं। हमारे वैकुण्ठवासी जगत गुरू रामानुजाचर्य स्वामी श्री सुदर्शनाचार्य जी महाराज तो स्मरण से अधिक सेवा का महत्व मानते थे क्योंकि उनका मानना था कि सेवा में स्मरण स्वत: हो जाता है। सेवा में अहं का भी नाश हो जाता है जो परमात्मा प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है। हमारे भाष्यकार स्वामी रामानुजाचार्य का कहना है कि जब व्यक्ति में कैंकर्य भाव अर्थात सेवा भाव उत्पन्न हो जाता है तो वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है-
कैंकर्य लक्ष्ण विलक्षण मोक्ष भाज:।
सेवा का साधारण अर्थ है कि दूसरों को ईश्वर का अंश मानते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य करना। समस्त प्रकार की सेवा का फल मीठा होता है, पर सात्विक निष्काम सेवा से ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। सेवा राजसिक एवं तामसिक भी होती है। जब व्यक्ति कामना युक्त हो कर सेवा करता है, वह राजसिक सेवा कहलाती है। वह सेवा दूसरों को हानि पहुँचाने की इच्छा से की जाती है, वह तामसिक सेवा है। व्यक्ति झूठ, छल, कपट का सहारा लेकर ढोंग तो सेवा का करता है पर वास्तव में उसका भाव दूसरों का अहित करना होता है।
सेवा रावण ने भी की और सेवा हनुमान जी ने भी की। रावण की सेवा सकाम भाव से थी। वह अंहकारी बन गया। हनुमान जी की सेवा निष्काम भाव से थी। रावण का सर्वनाम हो गया और हनुमान जी अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता बन गए, भगवान ही बन गए।
व्यक्ति को तामसिक सेवा तो कभी भी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति नरक को जाता है। राजसिक सेवा का फल मिल कर मिट जाता है। कभी-कभी वह अंहकार भी पैदा करती है, जिससे वह नरकगामी बन जाता है। इसलिए हमें केवल सात्विक निष्काम सेवा ही करनी चाहिए। सभी प्रकार की सेवाएं उत्तम हैं पर अपने गुरुदेव की, अपने गुरु दर की सेवा सर्वोत्तम है। इससे हमें अपने नारायण स्वरूप गुरु की विशेष प्रसन्नता प्राप्त होती है जो हमारे मोक्ष का कारण बनती है। यदि कोई गलती हो भी जाए तो गुरुदेव उसे सम्भाल लेते है। सेवा का कितना महत्व है, यह भगवान राम अपने श्रीमुख से कहते हैं-
अनुज राज सम्पति बैदेही, देह गह परिवार सनेही ।
सब मम प्रिय नहिं तुम्ही समाना, मृषा न कहउॅ मोर यह बाना ।
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण फरमान करते हैं –
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतेहिते रता: । (12/4)
अर्थात् वे मुझे यानि परमात्मा को ही प्राप्त होते है जो प्राणीमात्र के हित में लगे हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पत्तल उठाई थी। भगवान राम मतंग ऋषि के आश्रम में गये। वहाँ वेदपाठी, स्वाध्याय, मनन करने वाले, यज्ञ करने वाले, तपस्वी, मुनी, योगी सभी थे, पर भगवान राम किसी के पास नहीं गये। वे सीधे शबरी के पास गये। शबरी एक बूढ़ी स्त्री, अनपढ़, गंवार, छोटी जाति से सम्बन्ध रखती थी।
शबरी कहती है –
अधम से अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ।।
शबरी में एक गुण था कि वह नित्य आश्रम की सेवा में लगी रहती थी। अन्त: करण में राम समाये हुये थे। उनका स्मरण हर समय होता रहता था और वह शरीर से आश्रम की सेवा करती रहती थी।
हम अपने वैकुण्ठवासी श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य जी को ही देख लें। उन्होंने वर्षों निर्जन बीहड़ जंगलों में तपस्या की और उसका फल समाज को दे दिया। लाखों लोगों के दुखों को दूर किया और उन्हें परमात्मा प्राप्ति की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया। इतना ही नहीं, उन्होंने फरीदाबाद (हरियाणा) में दिव्यधाम की स्थापना की, जिसे लक्ष्मी नारायण दिव्यधाम, श्री सिद्धदाता आश्रम के नाम से जाना जाता है। जब तक यह धरती है तब तक असंख्य लोग इस दिव्यधाम पर आकर भावनाकूल धर्म, अर्थ, काम और अंत में मोक्ष की प्राप्ति करते ही रहेंगे। अब हमारे वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य जी भी उसी प्रकार से परहित और जनकल्याण कार्यों में निरन्तर लगे हुए हैं।
आश्रम में अनेक प्रकार की सेवाएं उपलब्ध हैं। व्यक्ति जो भी सेवा देना चाहे वह आमंत्रित है। उसके योग्य उसे सेवा का दायित्व प्रदान कर दिया जाएगा।
नारायण नारायण नारायण